नेतृत्व और नीति के स्तर पर नए रास्तों की तलाश जरूरी


 हाल में जारी कुछ आंकड़ों के अनुसार भारत के प्रत्येक जिला में औसतन 1 लाख 75 हजार डिग्री धारी बेरोजगार हैं। यानी देश के कुल 740 जिलों में लगभग 12 करोड़ डिग्रीधारी बेरोजगार हैं।

  जिनके पास कोई डिग्री नहीं है ऐसे बेरोजगार युवाओं की संख्या भी अच्छी खासी ही होगी।  तो...कुल मिला कर आज की तारीख में बेरोजगारी का मसला इतना गम्भीर हो चुका है जितना बीते 50 वर्षों में कभी नहीं हुआ था।

 कारपोरेट समुदाय को मजदूरों की कमी न हो इसलिये सरकारों ने आबादी नियंत्रण पर ध्यान देना कम कर दिया है। मनमोहन सिंह पहले प्रधानमंत्री थे जो भारत की बेहिंसाब बढ़ती आबादी पर गर्व करते देखे-सुने गए थे। जब ये आंकड़े सामने आते थे कि भारत में युवा आबादी दुनिया में सर्वाधिक है तो सिंह साहब हमें आश्वस्त करते थे कि इतने हाथ हमें दुनिया का अग्रणी राष्ट्र बना देंगे।

लेकिन हाथों को तो काम चाहिये, जिसके अवसर तो अपेक्षानुरूप बढ़े ही नहीं। मनमोहन सिंह 1991 से ही देश को यह उम्मीद दिलाते आ रहे थे कि उदारीकरण का कारवां जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाएगा, बाजार जैसे-जैसे खुलता जाएगा, रोजगार के अवसर भी बढ़ते जाएंगे।लेकिन...ऐसा हुआ नहीं।देश की विकास दर बढ़ी पर उस अनुपात में रोजगार सृजित नहीं हुए।

'जॉबलेस ग्रोथ'...अर्थशास्त्रियों ने विकास की इस प्रक्रिया को इसी विशेषण से नवाजा।

 यानी...ऐसी विकास प्रक्रिया, जो रोजगार पैदा करने में बांझ साबित हो, जिसमें देश की आय का बड़ा हिस्सा ऊपर के कुछ मुट्ठी भर लोगों की जेब में जाता जाए।

तो...बीते 30 वर्षों में बाजार खुले, खुलते गए...लेकिन इसका असली लाभ बाजार के बड़े खिलाड़ी उठाते रहे। रोजगार का बाजार लेकिन मंदा ही रहा

निजीकरण को मुक्ति का मार्ग माना गया और इस मुक्तिपर्व में नेता-अफसर-कारपोरेट की तिकड़ी ने जम कर चांदी काटी। 

 विभिन्न सर्वे में तथ्य सामने आए कि जिन सरकारी कम्पनियों का निजीकरण किया गया उनमें रोजगार के अवसर उल्टे और संकुचित होते गए, पूर्व से कार्यरत कर्मियों के मन में असुरक्षा बोध  और असंतोष भी बढ़ा।

इधर...एक नामचीन पत्रकार कल एक परिचर्चा में आंकड़े बता रहे थे कि देश भर में कुल 80 लाख सरकारी पद खाली हैं। इनमें केंद्र सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र और राज्य सरकारों के पद शामिल हैं।

 सरकारें इन पदों को भरने के प्रति उत्साहित नजर नहीं आ रही। इसका पहला कारण तो यह है कि सरकारों को पता है...रोजगार चुनावों में बड़ा मुद्दा नहीं बनता। दूसरा, अधिकतर सरकारों की माली हालत खस्ता है।

सबसे खस्ता हालत तो केंद्र सरकार की है जिसके 11 लाख से अधिक पद खाली हैं लेकिन वह वैकेंसी देने में क्रूरता पूर्ण कंजूसी कर रही है। 

बैंकों को कारपोरेट प्रभुओं ने राजनीतिक मिलीभगत से जिस निर्ममता से लूटा है, वे भी इस हालत में नहीं कि अपनी जरूरतों के अनुसार वैकेंसी दे सकें। ऊपर से, निजीकरण का फंदा है जो उन पर कसता ही जा रहा है। 

जाहिर है, जो भी निजी खिलाड़ी किसी सरकारी बैंक का स्वामित्व खरीदेगा वह चाहेगा कि स्टाफ का लोड कम से कम मिले। इस चक्कर में भी वैकेंसी पर ताले लगे हुए हैं। जब बिकना ही है तो बैंक वर्त्तमान या आगामी जरूरतों को ध्यान में रख कर भर्त्तियाँ क्यों करें। जैसा चल रहा है, घिसट घिसट कर चलता रहेगा, फिर एक दिन बिक जाना है।

तो, न सरकारें उस अनुपात में वैकेंसी दे रही हैं, न बैंक,न रेलवे,न अन्य इकाइयां। प्राइवेट सेक्टर अलग हांफ रहा है। वहां भी सन्नाटा सा छाया है। जानकार बता रहे हैं कि रोजगार के बाजार में ऐसी मंदी पहले कभी नहीं देखी गई थी।

इस संदर्भ में, 2013-14 में नरेंद्र मोदी का 2 करोड़ नौकरियां सालाना पैदा करने का वादा याद करके अब खीज़ भी पैदा नहीं होती। रोजगार अगर कोई पैमाना है तो मोदी निर्विवाद रूप से अब तक के सबसे असफल प्रधानमंत्री साबित हुए हैं।

 इधर, एक फलसफा बेरोजगारी से जूझते विद्वतजन भी आजकल दुहराते हैं, "सरकारी नौकरी बेरोजगारी दूर करने का माध्यम नहीं।"

ठीक है, सरकारी नौकरी से बेरोजगारी दूर नहीं हो सकती। इसके लिये प्राइवेट सेक्टर और स्वरोजगार की भी भूमिका होती है। 

लेकिन...इसका क्या औचित्य कि 80 लाख सरकारी पद सरकारों की अकर्मण्यता और नैतिक बेईमानी से खाली पड़े रहें और पढ़े-लिखे युवा सिर्फ कंपीटिशन की तैयारियां करते-करते मानसिक रूप से टूटते जाएं।

विधिवत सृजित सरकारी पदों का खाली रहना सरकार के कामों की गति को भी मन्थर करता है, जनता की कठिनाइयों को भी बढ़ाता है और लाखों बेरोजगारों के सपनों की भ्रूण हत्या भी करता है।

 रोजगार और निजीकरण एक दूसरे के पूरक साबित नहीं हो पाए, यह बीते वर्षों के अनुभवों का प्रामाणिक निष्कर्ष है। 

 नए रास्तों की तलाश करनी होगी।

स्थितियां जितनी तेजी से और विद्रूपताओं के साथ बिगड़ रही हैं वे बेहद गम्भीर सामाजिक संकटों को जन्म दे रही हैं। गंगा स्नान से पाप शायद धुलते हों, देश वासियों को रोजगार नहीं दिए जा सकते। इसके लिये विजन चाहिये, इच्छाशक्ति चाहिए। ये दोनों वर्त्तमान सरकार के पास नहीं हैं। 

  देश को आगे देखना होगा। न सिर्फ नेतृत्व के स्तर पर, बल्कि नीतियों के स्तर पर भी।

( लेखक हेमंत कुमार झा पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर है उनकी फेसबुक वालों से)