विपक्ष में नैतिक बल की कमी

हेमंत कुमार झा 

डिजिटल मीडिया में चल रही चर्चाओं-परिचर्चाओं से एक बात निकल कर आ रही है कि भाजपा की सांप्रदायिक और कारपोरेट परस्त राजनीति के खिलाफ विपक्ष के कई नेता कठोर रुख नहीं अपना रहे, खुल कर विरोध नहीं कर रहे, सड़कों पर आंदोलन आदि नहीं कर रहे तो इसका एक बड़ा कारण यह है कि उन्हें ईडी-सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसियों का डर है।

      सामाजिक विद्वेष बढ़ाने वाली राजनीति और सरकार के आर्थिक फैसलों को लेकर बौद्धिक वर्ग के बड़े हिस्से में गहरी बेचैनी है। हिन्दू राष्ट्र का झुनझुना बजा कर सार्वजनिक परिसम्पत्तियों को बेचते जाना, ऐसी राजनीति करना जिसमें रोजगार और जीवन से जुड़े अन्य जरूरी मुद्दों के लिये कोई स्थान न हो, यह अंततः देश को बहुत भारी पड़ने वाला है, बल्कि भारी पड़ने लगा है।

  और...तब भी,

     अपवादों को छोड़ विपक्ष के अधिकतर नेता अपनी आरामदेह मांद से तभी निकलते दिखते हैं जब कोई चुनाव हो। बरसों बरस शीतनिद्रा में रहेंगे और जब चुनाव होंगे तो रोजगार, दलितों पर अन्याय, पिछड़ों के हित, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा आदि शब्दों को दुहराते, जातीय समीकरणों को साधते वोट मांगने निकल पड़ते हैं।

       भाजपा का सशक्त राजनीतिक विरोध नहीं करने की विवशता अगर इस कारण है कि उन्हें केंद्रीय जांच एजेंसियों का डर है तो फिर उनका राजनीति करना ही बेकार है। ऐसे नेताओं के मन में जनता के लिये थोड़ा भी दर्द है तो उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिये और भाजपा को वाकओवर दे देना चाहिये। 

   तब...भाजपा निर्विरोध या बिना किसी खास विरोध के आसानी से लगभग सारी की सारी सीटें जीत जाएगी। 

  कितनी बार जीतेगी भाजपा?

    दो बार, तीन बार...। फिर, कोई न कोई उभरेगा जो मुद्दों की बात करेगा, त्रस्त जनता में नई उम्मीदें भरेगा।

     राजनीति में अधिक दिनों तक कोई स्थान खाली नहीं रहता। एक राजनीतिक शक्ति तिरोहित होती है, दूसरी जन्म लेती है।

     जिन्हें जेल जाने का डर है, हजारों करोड़ रुपयों के अपने आर्थिक साम्राज्य पर छापे पड़ने का डर है, बेहतर है कि वे डरें। आर्थिक घोटालों या इस जैसे अन्य आरोपों में जेल जाने से डरना ही चाहिये। 

   और, न जाने कैसे-कैसे कमाए गए, न जाने कैसे-कैसे बचाए-छुपाए गए, न जाने कहाँ-कहाँ निवेश किये गए हजारों करोड़ रुपये की संपत्ति के जब्त होने से भी डरना ही चाहिए। पैसे पेड़ों पर थोड़े ही उगते हैं। और, न सिर्फ मेहनत से इतने रुपये आते हैं। बहुत कुछ पाप-पुण्य करने पड़ते हैं इतने रुपयों के लिए।

  इतनी अकूत सम्पत्ति बची रह जाए और जेल भी न जाएं और राजनीति में भी बने रहें, गरीबों-पिछड़ों के हक-हुक़ूक़ की फिलासफी भी झाड़ते रहें...नेताओं की ऐसी कोशिशें जनता पर बेहद भारी पड़ी हैं।

     यह कैसे हो सकता है कि कोई वंचितों की राजनीति भी करे और इतिहास की घोरतम वंचित विरोधी सरकार के डर से सड़कों पर भी न उतरे।

      इससे भी बदतर यह कि कोई अपने अतीत के पाप-पुण्य का खाता उजागर होने के डर से इतना आतंकित हो जाए कि प्रकट में विरोध का छद्म रचे और छुपे तौर पर सत्ता की राजनीतिक एजेंटी करे।

        देश और समाज आज ऐतिहासिक संकटों से गुजर रहा है। सात-आठ साल पहले जिनके पास देश की तमाम समस्याओं का समाधान था, आज वे ही देश की सबसे बड़ी समस्या बन गए हैं। लेकिन, उनका ठोस राजनीतिक प्रतिकार इसलिये नहीं हो रहा कि अधिकतर नेताओं को सीबीआई से डर लगता है।

     अनैतिक राजनीति का सशक्त विरोध करने के लिये न्यूनतम नैतिक बल तो होना ही चाहिये। जिनके पास इतना भी नैतिक बल नहीं है कि मुद्दों पर खुल कर अपनी राय रख सकें, आंख से आंख मिला कर बात कर सकें...तो बेहतर है कि राजनीति छोड़ कर कमाए-बचाए गए बेहिंसाब रुपयों से मालदीव, मॉरीशस आदि में कहीं कम्पनियां खोल कर ऐश करें। 
     लोगों को अपने हाल पर छोड़ दें। शोशेबाजी से भरी वर्त्तमान राजनीति और सत्ता नीति से जब पानी गले-गले से होते सिर के ऊपर से गुजरने लगेगा, लोग अपनी चिंता कर ही लेंगे।