वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश की फेसबुक वॉल से
बहुत सारे लोगों को कहते सुनता हूं कि उन्हें अपनी जाति पर गर्व है! अनेक लोग कहते हैं कि उन्हें अपने संप्रदाय और,धर्म पर गर्व है. मजे की बात कि ऐसा कहने वालों में तरह-तरह के लोग होते हैं. अनेक लोग अच्छे-खासे पढ़े-लिखे भी होते हैं. सिर्फ कट्टर दक्षिणपंथी ही नहीं होते, उनमें मध्यमार्गी, गांधीवादी, प्रगतिशील, वाममार्गी और लिबरल्स भी दिख जाते हैं. 
हिन्दी के एक 'बड़े बुद्धिजीवी' थे, उन्हें इस बात पर गर्व था कि तुलसी जैसा महाकवि, चाणक्य जैसा राजनीतिज्ञ और सचिन तेंदुलकर जैसा क्रिकेटर उनकी जाति में ही पैदा हुए! अपनी जाति के लोगों को वह प्रतिभावान माना करते थे. अलग-अलग क्षेत्रों की ऐसी अन्य विशिष्ट हस्तियों का भी वह नामोल्लेख करते रहते थे. अब उन्हें कोई कैसे समझाता कि भारतीय समाज में लंबे समय तक उनकी और कुछेक अन्य उच्च हिन्दू जाति के लोगों को ही शिक्षित, सुसंस्कृत और सुयोग्य बनने का अधिकार प्राप्त था. अन्य जाति-समुदाय के लोगों को शिक्षा क्या न्यूनतम मानवाधिकार से भी वंचित रखा गया था. उस समय के समाज और सत्ता-संचालकों की ऐसी ओछी सोच और वैचारिक तानाशाही पर उन्हें गर्व होना चाहिए या शर्म? 
किसी जाति-बिरादरी और धर्म-संप्रदाय पर गर्व  करने की बजाय लोगों को अपने देश या दुनिया के महान् लोगों, उनके विचारों और कामों पर गर्व करना चाहिए, खासतौर पर ऐसे लोगों पर जिन्होने देश, दुनिया और मानवता को रास्ता दिखाया. 
जाति या धर्म मे हर तरह के लोग होते हैं: कुछ अच्छे होते हैं तो बहुत सारे बहुत बुरे भी! ऐसे में किसी एक जाति और किसी एक धर्म पर कैसा गर्व! हमे तो हर जाति और हर धर्म के अच्छे लोगों पर गर्व है. सबकी अच्छी बातें पसंद हैं.
गर्व तो हमे अपने मुल्क के मेहनतकश लोगों पर है, जो तमाम मुश्किलों के बावजूद सृजन और उत्पादन में जुटे रहते हैं. मुझे अपने मुल्क के जंगल, पहाड़, नदी-नाले, खेत-खलिहान और बाग-बगीचे, सब बहुत सुंदर लगते हैं. तेज रफ़्तार ट्रेन की खिड़की से इन्हें देखता हूं तो देखते ही रह जाता हूं. कई बार तो मन होता है, इन्हीं खेत-खलिहानों, जंगल और पहाड़ो के बीच कहीं उतर जाऊं! इन सब पर मुझे गर्व है. 
मुझे अपने पिता और मां पर गर्व है. वे बेहद गरीब और पिछड़ी जाति के एक अशिक्षित परिवार से थे. उन्होने मुझे और मेरे बडे भाई को पढा-लिखाकर अपने और अपने समाज के उत्पीड़को से सकारात्मक 'बदला' लिया. इसलिए हमे अपने मां-पिता पर गर्व है. उन दोनो को स्कूल मयस्सर नहीं हुआ. पर उन दोनो ने अपने दोनो बेटों को देश के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों में पढ़ने का रास्ता बनाया.
हमे अपने विचार पर गर्व है, जो हमे अपने विद्यालयों, शिक्षको, सहपाठियों, विश्वविद्यालयो और पुस्तकालयो से मिले.अपने विश्वविद्यालयों(इलाहाबाद विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय)पर खासतौर पर गर्व है, जिनमें पढते हुए हमने समय, समाज और दुनिया को समझने की दृष्टि पाई. इन संस्थानों और यहां के माहौल ने हम जैसे लोगो को समझ और विचार दिये.
सिर्फ़ अपनी जाति और धर्म पर गर्व करने का क्या मतलब है? जबर्दस्ती गर्व करायेंगे? कोई चाहे कितना भी ताकतवर क्यों न हो, वह प्रेम, सम्मान और गर्व जबरन नहीं हासिल कर सकता! जाति और धर्म के नाम पर टकराव, हिंसा और नफरत फैलाने वालों पर भला कोई कैसे गर्व करेगा? 
वैसे भी मै भारतीय समाज मे 'जातियों के विनाश' का पक्षधर हूं. इस मामले में डा बी आर अम्बेडकर के चिन्तन के साथ हूं.
हमारे समाज मे वर्ण-व्यवस्था शोषण और उत्पीडन का अस्त्र है. दलित और  शूद्रों का बड़ा हिस्सा उत्पीड़ित और शोषित है.  जिसका मूलाधार ही वर्ण व्यवस्था हो, उस पर गर्व करने का क्या औचित्य है? वर्ण-व्यवस्था तोड़ने का कानूनी फैसला क्यों नही होता? अगर कोई करे या कराये और संविधान के बुनियादी उसूलों की रोशनी में समाज में समता, स्वतंत्रता और भाईचारे के मूल्यों को स्थापित करे तो उसके काम पर हम जरूर गर्व करेंगे!