अग्निपथ योजना : नए भारत के सपने दिखाने की फितरत
हेमंत कुमार झा

सैन्य विषयों का अपना शास्त्र है और निस्संदेह वे तीनों सेनाध्यक्ष इसके विद्वान ही होंगे, जो कल प्रेस कांफ्रेंस में 'अग्निपथ' योजना के फायदे गिना रहे थे।

    लेकिन, इसमें संदेह है कि जो वे कह रहे थे वह उनकी आत्माएं भी कह रही होंगी।

  नौकरी के दायित्व अक्सर आत्मा की आवाजों को अनसुना करने की विवशता भी लाते हैं।

    हालांकि, ऐसे पदधारी सत्ता के प्रति वफादारी दर्शाने के लिये अक्सर अपनी आत्माओं को मारते भी हैं।

   आखिर, कोई सैन्य अधिकारी कैसे यह कह सकता है कि कठिन प्रक्रिया से गुजर कर कोई नौजवान सेना को ज्वाइन करेगा और फिर महज़ चार साल बाद लोन लेकर किसी बिजनेस में उतर जाएगा!

   अग्निवीर का खाका खींचने वालों में शामिल एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी अभी कल ही टीवी पर बता रहे थे कि चार साल की नौकरी के बाद अग्निवीरों को 11 लाख रुपये मिलेंगे और ऊपर से उन्हें लोन की सुविधा भी मिलेगी ताकि वे अगले अडाणी बनने की राह पर चल सकें।

    इसमें भी सन्देह है कि उस अधिकारी की आत्मा भी उसके इस कथन को स्वीकार कर रही होगी।

  बचपन से सेना में जाने की महत्वाकांक्षा पाले, सुबह मुंह अंधेरे मीलों दौड़ लगाते, उठक-बैठक करते किसी युवा की मानसिक बुनावट क्या ऐसी हो सकती है कि वह सरकार के ही शब्दों में "कतरा कतरा देश के नाम" करते करते अचानक रेडीमेड कपड़ों या जूते-चप्पलों के बिजनेस में उतर जाए?

  हालांकि, उस भाजपा नेता की आत्मा जरूर उसके बयान की तस्दीक कर रही होगी जिसने कहा कि रिटायर अग्निवीरों को हम अपने पार्टी दफ्तर के सुरक्षा गार्ड की नौकरी दे सकते हैं।

     मध्यप्रदेश के उस बड़े भाजपा नेता की बात सच्चाई के सबसे करीब है। भारत सरकार के संसाधनों से लंबी और कठिन ट्रेनिंग प्रक्रिया से गुजरने के बाद अग्निवीर तीन-साढ़े तीन वर्ष सेना की सेवा में रहेंगे, उसके बाद उनमें तीन चौथाई रिटायर कर दिए जाएंगे और फिर...उनमें से अधिकतर के पास निजी सिक्योरिटी एजेंसियों की नौकरी करने के अलावा और कोई चारा नहीं रहेगा। बाकी सरकारी भर्त्तियों का हाल तो सब देख ही रहे हैं जिनमें इन अग्निवीरों को आरक्षण मिलने की बात कही जा रही है।

   57 हजार करोड़ का निजी सिक्योरिटी का बाजार निरन्तर फैलता जा रहा है। बड़े-बड़े लोग, अब तो बड़े कारपोरेट घराने भी, इस बाजार में हाथ आजमा रहे हैं। रिटायर अग्निवीरों के रूप में उन्हें सरकार के खर्चे से हाई लेवल ट्रेनिंग प्राप्त नौजवान बड़ी संख्या में मिलेंगे जिन्हें वे अपनी शर्त्तों पर नौकरी देंगे।

   इस बात की पूरी संभावना है कि जितना वेतन उन्हें सेना की चार वर्षीय नौकरी में मिलेगा, निजी नौकरी प्रदाता उससे बेहद कम वेतन उन्हें देंगे। सरकार के शब्दों में "कतरा कतरा देश के नाम" करने वाले इन नौजवानों की बड़ी संख्या देश की राजनीति को अपनी उंगलियों पर नचा रहे कारपोरेट के हाथों शोषण के शिकार होगी।

     ये जो बड़े-बड़े बंदरगाह, हवाई अड्डे, रेलवे प्लेटफार्म आदि एक-एक कर अडाणी जैसों के हाथ में जा रहे हैं, उनकी सुरक्षा सरकारी अर्द्ध सैनिक बलों के हवाले रखना बहुत महंगा पड़ेगा न। ये ट्रेंड, रिटायर अग्निवीर उससे बहुत सस्ते में ये काम कर देंगे।

        इस योजना के कार्यान्वित होने से सरकार एक बड़े सैन्य बल से हमेशा बिना पेंशन की सुविधा के सेवा ले सकेगी। एक बैच रिटायर होगा, अगला बैच रिक्रूट होगा। सिलसिला चलता रहेगा। नौजवानों की ऐसी फौज, जिनके न प्रोमोशन की कोई चिंता, न पेंशन का कोई बोझ। इसे ही कहते हैं...'खून में व्यापार'।

      अधिक वक्त नहीं गुजरा जब किसानों के आंदोलन को विपक्ष की, विदेशी शक्तियों की, देशद्रोही तत्वों की साजिश बताने वाले फेसबुक पोस्ट्स और व्हाट्सएप मैसेजों को भावी अग्निवीरों का यह तबका भी फॉरवर्ड और शेयर कर रहा था।

    अब जब, उन नौजवानों के भविष्य पर नव उदारवादी सोच की कुल्हाड़ी चली है तो उनके आंदोलनों को भी उसी तर्ज पर देशद्रोही तत्वों की साजिश बताया जा रहा है। यह होना ही था। 

     बेचैन और आक्रोशित युवाओं के समूह में गलत तत्व घुस कर अवांछित तरीकों को हवा दें, यह बिल्कुल सम्भव है। ऐसा हुआ भी होगा। लेकिन, वर्षों से सेना बहाली की तैयारी कर रहे युवाओं को जब अपना भविष्य अंधेरों में जाता नजर आया तो उनके आक्रोश की अभिव्यक्ति का अराजक हो जाना बिल्कुल सम्भव है। 

       किसान आंदोलन ने अंततः सरकार को झुकने पर विवश कर दिया। क्या ऐसा अग्निवीर योजना विरोधों आंदोलन में भी होगा? लगता तो नहीं। जो समाज तमाम आंदोलनों को सन्देह की पतित नजर से देखने का आदी होता जा रहा हो, वह इस आंदोलन के साथ भी वही रवैया अपनाएगा। कारपोरेट संपोषित मीडिया नौजवानों के इस आक्रोश को 'साजिश' साबित करने में पहले दिन से जुट गया और अनवरत अपने 'टास्क' को पूरा करने में लगा है।

    हिंदी पट्टी के नौजवानों का जो वर्ग आईटी सेल के सामने नरम चारा की तरह था, जो उसके हर प्रपंच को शेयर, फॉरवर्ड करता रहा, जिसका मानसिक अनुकूलन करने में सत्ता को सबसे अधिक सफलता मिली है, आज वही आंदोलित है। 

    ब्रेख्त की कविता याद आती है, 'वे कल मेरे पड़ोसी के दरवाजे पर आए थे, मैं चुप रहा। आज वे मेरा दरवाजा खटखटा रहे हैं।"

   नवउदारवादी सत्ता किसी को नहीं छोड़ेगी। क्या शिक्षक, क्या छात्र, क्या मजदूर, क्या किसान, क्या पब्लिक सेक्टर के बाबू लोग, क्या निजी क्षेत्र के कर्मचारी, क्या बूढ़े, क्या जवान।

    नई दुनिया, नए भारत के सपने दिखाते वे हमारे मुस्तकबिल पर कब्जा करते जा रहे हैं और उनकी फितरत देखिये, वे हमसे ही अपना जयकारा भी लगवा रहे हैं।
( लेखक पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर है उनकी वॉल से )