मृत्युपूर्व कथन सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं की वह पुलिस सामने दिया गया है : सुप्रीम कोर्ट
विजय शंकर सिंह 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा-32(1) ‘मृत्युपूर्व घोषणा' को मृत व्यक्ति द्वारा दिये गए प्रासंगिक तथ्यों के लिखित या मौखिक बयान के रूप में परिभाषित करती है। यह उस व्यक्ति का कथन होता है जो अपनी मृत्यु की परिस्थितियों के बारे में बताते हुए मर गया था। यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि, ‘एक व्यक्ति झूठ के साथ अपने सृजनकर्त्ता के समक्ष नहीं जा सकता।
अधिनियम की धारा 60 के तहत सामान्य नियम यह है कि सभी मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होने चाहिये यानी पीड़ित ने इसे सुना, देखा या महसूस किया हो।

मृत्युपूर्व घोषणा' को मुख्यतः दो व्यापक नियमों के आधार पर स्वीकृति दी जा सकती है:
० जब पीड़ित प्रायः अपराध का एकमात्र प्रमुख प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य हो।
० ‘आसन्न मृत्यु का बोध’, जो न्यायालय में शपथ दायित्व के समान ही होता है।
‘मृत्युपूर्व घोषणा' की रिकॉर्डिंग:

कानून के अनुसार, कोई भी व्यक्ति मृतक का मृत्युपूर्व बयान दर्ज कर सकता है। हालाँकि न्यायिक या कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया गया मृत्युकालीन बयान अभियोजन मामले में अतिरिक्त शक्ति प्रदान करेगा।
‘मृत्युपूर्व घोषणा' कई मामलों में "घटना की उत्पत्ति को साबित करने के लिये साक्ष्य का प्राथमिक हिस्सा" हो सकती है।

इस तरह की घोषणा के लिये अदालत में पूरी तरह से जवाबदेह होने की एकमात्र आवश्यकता पीड़ित के लिये स्वेच्छा से बयान देना और उसकी मानसिक स्थिति का स्वस्थ्य होना है। मृत्यु से पहले की गई घोषणा को दर्ज करने वाले व्यक्ति को इस बात से संतुष्ट होना चाहिये कि पीड़ित की मानसिक स्थिति ठीक है।

न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने कहा कि,
"हालांकि मृत्यु से पहले का बयान आदर्श रूप से एक मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया जाना चाहिए, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि पुलिस कर्मियों द्वारा दर्ज की गई मौत की घोषणा केवल इसी कारण से अस्वीकार्य है।"

अदालत ने कहा कि,
"पुलिस द्वारा दर्ज किया गया मृत्युकालिक बयान स्वीकार्य है या नहीं, इस मुद्दे पर हर मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद फैसला किया जाना चाहिए।"

इस केस में, आरोपी के खिलाफ अभियोजन का मामला यह था कि, 'उसने पीड़िता के साथ बलात्कार किया और बाद में उस पर मिट्टी का तेल डालकर माचिस की तीली से आग लगा दी और भाग गया। एक पीड़िता के परिवार (ग्रामीण के साथ) ने आग बुझाई और उसे अस्पताल ले गए। थाना प्रभारी को घटना की सूचना मिली और वह अस्पताल पहुंचे जहां उन्होंने उसी दिन पीड़िता की 'फर्द बेयां' रिकॉर्ड कर ली.  अपने बयान में, उसने उपरोक्त पैराग्राफ 2 में वर्णित घटना को बताया।  ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को आईपीसी की धारा 302, 341, 376 और 448 के तहत दोषी करार दिया।  बाद में हाईकोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए आरोपी को बरी कर दिया। 

इसकी अपील सुप्रीम कोर्ट में हुई। अपील में, सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि, मृतक के बयान से संकेत मिलता है कि, आरोपी द्वारा उस पर मिट्टी का तेल डालने और उसे आग लगाने के परिणामस्वरूप वह जली हुई थी और आरोपी ने उसे आग लगाने से पहले उसके साथ बलात्कार किया - यह उन परिस्थितियों का विवरण है, जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हुई। 

इस विंदु पर कि, क्या किसी पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज किया गया बयान स्वीकार्य है या नहीं, पीठ ने कहा:
"इस आशय का कोई नियम नहीं है कि, मृत्यु से पहले की घोषणा तब अस्वीकार्य होती है, जब उसे मजिस्ट्रेट के बजाय पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज किया जाता है। हालांकि, यदि संभव हो तो मृत्यु से पहले की घोषणा को आदर्श रूप से मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया जाना चाहिए। यह नहीं कहा जा सकता है कि, मृत्यु से पहले के बयान को, किसी पुलिस अफसर ने, दर्ज किया गया है तो, अकेले, केवल इस कारण से ही यह कानून की नजर में, अस्वीकार्य हैं। यह विंदु कि क्या, पुलिस द्वारा दर्ज की गई मृत्यु पूर्व बयान, स्वीकार्य है, प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद तय किया जाना चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए कि, मृत्यु से पहले का बयान, प्रश्न और उत्तर के रूप में है या नहीं है, या और कोई संबंधित विंदु तो ऐसा नहीं है, जो इसकी स्वीकार्यता को प्रभावित करती है। रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि 
"अदालत संतुष्ट है कि, मृत्यु से पहले का बयान, स्वेच्छा से किया गया था और यह सच है। इस प्रकार, कोर्ट ने आरोपी की सजा बहाल कर दी।

सुप्रीम कोर्ट का मृत्यु पूर्व बयान के बारे में, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872;  धारा 32 - मृत्यु की घोषणा - के संदर्भ में यह दृष्टिकोण है। 
० यद्यपि, यदि संभव हो तो, आदर्श रूप तो यही है कि, मृत्यु से पहले के बयान, को एक मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया जाना चाहिए, पर, यह नहीं कहा जा सकता है कि पुलिस कर्मियों द्वारा दर्ज की गई मृत्यु की घोषणा केवल इसी कारण से अस्वीकार्य है कि, उसे एक पुलिस अफसर के समक्ष किया गया है और उस बयान को, पुलिस अफसर ने दर्ज किया है। 
० प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद पुलिस द्वारा दर्ज की गई मृत्युकालीन घोषणा स्वीकार्य है या नहीं, इस मुद्दे पर निर्णय लिया जाना चाहिए।
(पैरा 41-44, 50-52)

( लेखक पूर्व पुलिस अधिकारी है उनकी फेसबुक वॉल से)