शम्भुनाथ की फेसबुक वॉल से


न भंगेड़ी पांड़े जी न गंजेड़ी यादव जी न नशेड़ी ठाकुर साहब, न नोट गिन रहे लाला जी न सुख-शैया में खोई ललाइन! किसी को भी यह फिक्र नहीं है, कि सरकार देश को किस गर्त में ले जा रही है। तेजस की आलोचना कर देने पर कांग्रेसी पांड़े, वामपंथी पत्रकार मिश्र जी और समाजवाद का झण्डा उठाए यादव आदि सब तिलमिला गए। सबने मुझे घेर कर पूछा, कि आप इसे डग्गामार कैसे कह रहे हैं? अरे घोंचूबकस! जब कोई ट्रेन किसी रूट पर निर्धारित किराये से अधिक या कम ले, तो उसे डग्गामार ही कहा जाएगा। पटरी पब्लिक की है, जिसे ब्रिटिश सरकार ने बनवाया था, उस पर तेजस को दौड़ाने के पूर्व बताना चाहिए, कि उस ट्रेन के लिए आईआरसीटीसी से कितना लिया गया? चूंकि यह ट्रेन पब्लिक के हितार्थ नहीं है, इसलिए यह प्रश्न उठता ही है। आज से सौ वर्ष पूर्व जब इस पटरी (जिस पर तेजस दौड़ रही है) को बनवाया गया था, तब हमारे पुरखों से ज़मीन यह कह कर ली गई थी, कि इस पटरी पर जो ट्रेनें दौड़ेंगी, उनसे तुम्हें फायदा होगा। हम ब्रिटिश सरकार की प्रजा थे, उसने हमसे पब्लिक वेलफेयर में यह वायदा किया था। सत्ता हस्तांतरण के बाद भरोसा दिलाया गया, कि नई सरकार से भी वही लाभ आपको मिलेंगे, जो आज मिल रहे हैं। 1970 तक तो काफी-कुछ ठीक चला, लेकिन उसके बाद से हमारी ज़मीन, हमारा पानी, हमारे जंगल पैसे वालों को बेचे जाने लगे। 1980 के बाद की सरकारें इस दिशा में कुछ और बढ़ीं। 1990 के बाद से खुला खेल हो गया। 2000 के बाद से तो लूट शुरू हो गई, जो अब तक निरंतर बढ़ती जा रही है। 
अगर सरकार को सब चीज़ें निजी हाथों में देनी ही हैं, तो कुछ बातों की गारंटी भी लेनी होगी। मसलन आपने जो फैसले किए, उन्हें पारदर्शी बनाएँ। जब सरकार निजीकरण को बढ़ावा देने लगती है, तो हर बात पर शक होता है। यह भी लगता है, कि क्या फौज, पुलिस और नौकरशाही का भी निजीकरण होगा? दूसरे अगर होगा, तो बताया जाए, कि सरकार की क्या भूमिका होगी? क्या सरकार निजी हाथों में चल रहे संस्थानों पर कोई नियंत्रण रखेगी, या खुला खेल फर्रूखाबादी? अगर ऐसे ही चलता रहा, तो भारत की स्थिति वही हो जाएगी, जो औरंगजेब की मौत के बाद हो गई थी। इधर-उधर से कोई नादिरशाह आता या कोई अब्दाली आता और बादशाह की ज़र और जोरू तो छीनता ही, पब्लिक का कत्लेआम करता। छोटी-छोटी रियासतें कभी मराठा, तो कभी राजपूत, कभी गुसाईं, तो कभी रोहिल्ले पठान या जाट आकर लालकिला लूट ले जाते। एक रोहिल्ले पठान ने तो बादशाह की आँखें ही नुचवा ली थीं। 
इसलिए सरकार अपना इकबाल बनाए, और सेठों को सेठ ही रहने दे, उन्हें शासक न बनाए। किराया, फीस और सुविधाओं पर सरकार की नकेल रहे। वरना ये व्यापारी किसी के नहीं हुए, आपके क्या होंगे। अमीचंद सेठ ने विदेशी क्लाइव के हाथ मजबूत किए, क्या पता कल को ये अंबानी, अडानी और उनके दल्ले इमरान खान जैसों को ही यहाँ ले आएँ!