एक देश, एक नोटबंदी के बाद एक सत्र भी!
'एक देश, एक चुनाव' का नारा 15 लाख के जुमले की ही तरह वोट खेंचू भले हो, पर लागू नहीं किया जा सकता है। याद है, पश्चिम बंगाल के आठ चरण वाले चुनाव और फिर पंचायत चुनावों में हिंसा तथा केंद्मेंरीय बलों की तैनाती और उपलब्धता? इसलिये अगर ऐसा हो भी गया तो देश भर में चुनाव पांच साल चलता रहेगा भले पांच साल बाद एक साथ सभी चुनावों का परिणाम आये। बिना सोचे समझे नोटबंदी हो सकती है तो यह भी हो सकता है। ट्रोल सेना और भक्त हैं ही।
पर मुझे लगता है कि यह वैसे ही नहीं होगा जैसे 15 लाख नहीं मिले। दरअसल यहां भी सिर्फ कहने में फायदा है करने में नहीं। आपको याद होगा 15 लाख मिलना कितना आसान था। 100 दिन में हो जाना था। 10 साल में नहीं हुआ। हालांकि, मिलते तब जब वहां होते या लाये जाते। पर उसकी जरूरत किसे है। जिसकी जरूरत थी वो हो गया।
कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना में ऐसा होता है। पर वह पुरानी बात हो गई। अगर आपको लगे कि नोटबंदी हो सकती है तो 'एक देश, एक चुनाव' क्यों नहीं? तो यह वैसे ही है कि उसकी कीमत लगेगी। लोग चाहे न मरें और कुछ हो या नहीं विकास होता रहेगा और यह सरकार आप ही से जीएसटी वसूल कर आप ही को हर महीने बताती रहेगी कि वसूली बढ़ गई इसलिए खुश रहिये। सब चंगा सी।
जहां तक गलतफहमी की बात है तो वह नोटबंदी से भी थी। सवाल यह है कि जब उससे सीख नहीं मिली तो कभी मिलेगी? और यह भी कि बहुमत देश को प्रयोगशाला बनाने के नहीं मिलता है और ना उसके लिए चुनाव होते हैं। फिर भी एप्लसबी का होल स्क्वैयर = एस्क्वैयर प्लस बी स्क्वैयर प्लस टूएबी होता है। यही पढ़ाया जाता है।
बहुमत मिलने के बाद कोई कहे कि उसमें टूएबी एकसट्रा होता है। तो मानिये या मत मानिये - बहुमत की ताकत कुछ भी कर सकती है। ऊपर से एंटायर पॉलिटिकल साइंस में डिग्री हो तो सोने पे सुहागा। बात सिर्फ नोटबंदी नाकाम होने की नहीं है। पप्पू बनाने की कोशिश भी नाकाम हुई है पर पप्पुओं को यह समझ में आये तब ना।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार व अनुवादक हैं)