बीजेपी सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने संसद में वही कहा जो वो सड़कों पर बहुत पहले से कहती रही हैं। वही क्यों, बीजेपी में ऐसे लोग बड़ी तादाद में हैं जिन्हें नाथूराम गोड्से अच्छा लगता है। ये उस हत्यारे के पक्ष में इसलिए खड़े दिखते हैं क्योंकि इन्हें पता है कि नाथूराम मुसलमानों से नफरत करने वाला शख्स था और उसने धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर महात्मा गांधी की हत्या इसलिए की क्योंकि महात्मा गांधी देश विभाजन के बाद कोष के बंटवारे में पूरी ईमानदारी चाहते थे। ईमानदारी से कोष बंटवारे के पक्ष में खड़े गांधी के लिए बहुत शातिराना अंदाज में ये बात फैला दी गई कि देश के विभाजन की वो सबसे बड़ी वजह थे। मतलब ये बात साफ है कि प्रज्ञा ठाकुर या उन जैसे लोगों ने ना तो कभी देश विभाजन के कारणों को ठीक से जानने के लिए गंभीर अध्ययन किया है और ना ही तथ्यों की पड़ताल की कोई कोशिश की है। इस देश में कौआ कान लेकर भागता है और लोग कौआ के पीछे। विभाजन के तथ्यों के साथ भी यही हुआ। प्रज्ञा और प्रज्ञा जैसे लोग कौए के पीछे भाग रहे हैं। मुझे प्रज्ञा ठाकुर से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि, अनपढ़ या अनगढ़ होना कोई अपराध नहीं है। मेरी शिकायत उस जमात से है जो खुद को बुद्धिजीवी कहती है। इस जमात ने वुद्धिजीविता की चादर ओढ़ ली और अज्ञानता के अंधकूप में इतरा रहे लोगों से दूरी बना ली। बुद्धीजीवी जमात की सबसे बड़ी विफलता यही है कि उसने विश्वविद्यालयों की कुछ डिग्रियों को चिंतन का प्रमाण मान लिया।
प्रज्ञा ठाकुर का लोकसभा में होना अगर किसी को हैरान करता है तो यकीन मानिए वो शख्स किसी मुगालते में जी रहा है। बिहार के सिवान का दुर्दांत अपराधी शहाबुद्दीन, यूपी का दुर्दांत अतीक अहमद और इन जैसे कई लोग इस सदन की गरिमा बढ़ा चुके हैं तो फिर प्रज्ञा ठाकुर से परेशानी क्यों ? रही बात नाथूराम गोडसे और गांधी की तो सच यही है कि इस देश में गांधी वो साइनबोर्ड है जिसे राजनीति की हर दुकान अपने माथे पर उठाए रहती है। मराठी के नाटककार पु ल देशपाण्डेय के एक नाटक में एक पात्र कहता है कि चूंकी हम महात्मा गांधी के रास्ते पर चल नहीं सकते, इसलिए जिस रास्ते पर चलते हैं उसका नाम महात्मा गांधी रोड रख लेते हैं। इस नाटक के इस संवाद से बहुत कुछ साफ होता है। दरअसल मन के चोर और पाप को छुपाने का यह एक तरीका है। हम हर जगह उस चोर और पाप को छुपाने की कोशिश करते रहते हैं और मौका मिलते ही हमारे मान का चोर बाहर निकल आता है। जैसे हमें ये एहसास नहीं होता कि हमारे पांवों के नीचे ज़मीन है जिसपर हमारा पूरा अस्तित्व टिका है। या फिर हमें ये एहसास नहीं होता कि हवा कहीं मौजूद है लेकिन, जब दम फूलता है तब हमें हवा का महत्व समझ में आता है। इस देश में गांधी ऐसी ही ज़रूरत हैं। जब पांवों के नीचे से ज़मीन खीसकती है या फिर जब ऑक्सीजन के बिना दम फूलने लगता है तब हमें गांधी याद आते हैं। गांधी ऐसी ज़रूरत नहीं होते तो 31 जनवरी 1948 को उनके शरीर के साथ हम उनका भी दाह-संस्कार कर चुके होते। गांधी के शरीर की हत्या नाथूराम ने की लेकिन गांधी के सपनों की हत्या तो आज़ादी से पहले की जा चुकी थी। गांधी तो किसी भी सूरत में देश का विभाजन नहीं चाहते थे। जब गांधी ने ये कहा कि देश बांटने से पहले उनके शरीर को दो टुकड़े कर दिए जाएं तब उनकी किसी ने नहीं सुनी। गांधी की हत्या उस दिन भी हुई थी जिस दिन जवाहर लाल नेहरु, सरदार वल्लभ भाई पटेल और मोहम्मद अली जिन्ना ने गांधी के तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए देश के बंटवारे के फैसले पर आखिरी मुहर लगाई थी।
आज़ादी के ठीक बाद एक बार फिर गांधी की हत्या हुई। अंग्रेजों से आज़ादी लिए बिना ये देश अपने गौरव को हासिल नहीं कर पाएगा इस बात से तो सभी सहमत थे। आज़ादी की अहिंसक लड़ाई में पूरे देश ने गांधी को अपना नेता मान लिया था। लेकिन आज़ादी के बाद चाहे वो जवाहर लाल नेहरू हों या फिर सरदार पटेल या विनोबा भावे, गांधी के साथ कोई खड़ा नहीं था। ये तीनों गांधी को अपना नेता तो मानते थे, गांधी के प्रति पूरी ईमानदारी भी रखते थे लेकिन, गांधी का मार्ग इन्हें स्वीकार नहीं था। गांधी का पश्चिम विरोध नेहरू को पसंद नहीं था। नेहरू मानते थे कि विकास का सूरज पश्चिमी देशों से ही उगेगा। ये मानते हुए नेहरू के मन में गांधी का प्रति पाप था। गांधी की धार्मिकता सरदार पटेल को पसंद नहीं थी। गीता हाथ में लेकर चलने वाले धर्मनिर्पेक्ष गांधी को वो एक रहस्य मानते थे।
जिस पश्चिम का जो सूरज कभी डूबता नहीं था उसी सूरज को गांधी ने अपनी छवि से ढक लिया और आजादी के बाद नेहरू उसी पश्चिमी सूरज से देश को रौशन करने की दिशा में आगे बढ़े। नेहरू के मन में ये चोर था और इसीलिए वो गांधी से आंखें मिलाने के बजाए उनके पायताने बैठने लगे थे। गांधी ने जिस पूंजी की सत्ता को जन की ताकत से ऊंखाड़ फेंका था उसी पूंजी की सत्ता स्थापित कने की बेचानी सरदार पटेल में थी। इसीलिए वो भी गांधी से नजरें नहीं मिला पाते थे और गांधी के पायताने बैठने लगे थे। मौजूदा सत्ता वर्ग भी वही कर रहा है। गांधी ने जिस घृणा के मदमस्त हाथी को प्रेम की कुटिया में बांधा था बीजेपी उसी हाथी पर सवार है और यही वजह है कि गोडसे का नाम आते ही मन का चोर छुपाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गांधी के पायताने आकर बैठ जाते हैं।
तो जो चोर नेहरू और पटेल के मन में था वही चोर आज भी हमारे शासक वर्ग के मन में है। कोई नहीं कहता की गांधी का अंतिम संस्कार कर दो। अपनी दुकान से कोई राजनीतिक दल गांधी का साइन बोर्ड उतारना नहीं चाहता। आज़ादी के ठीक बाद से आज तक पग-पग पर गांधी की हत्या करने वालों ने अपने दामन पर लगे खून के छींटे गांधी नाम की चादर से ही छुपाई है। इसलिए प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई। मन का चोर मन में छुपाए रखने की कला सबको नहीं आती। प्रज्ञा वो चोर नहीं छुपा पाती हैं।
हां, देश ये यकीन रखे कि गांधी कोई शरीर भर नहीं है जो किसी गोडसे की गोलियों से मर जाएगा। गांधी वो ज़मीन है जिसपर भारत के पांव टिके हैं और गांधी वो प्राणवायु है जो भारत के फेफड़ों में जाता है। और भारत वो देश नहीं जो मुंह पर पट्टी, आंखों पर तोबड़े और दिमाग पर ढक्कन लगाकर चलता हो। गांधी ने वही पट्टी, वही तोबड़े, और वही ढक्कन तो हटाया था। एक दिन गांधी का ये देश सफेदपोशों के बदन से वो चादर उतार देगा जिस चादर से गांधी हत्या के दाग़ छुपाए गए हैं। याद रखिए गांधी ने बीसवीं सदी को हिलाया था।
गांधी कोई शरीर भर नहीं : असित तिवारी की फेसबुक वॉल से