कट्टरता बनाम कट्टरता! - शंभूनाथ शुक्ल की फेसबुक वॉल से


राहुल गांधी, सोनिया गांधी या प्रियंका गांधी अथवा दिग्विजय, कमलनाथ, अशोक गहलौत, अमरिंदर सिंह, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद हों या एक्स, वाई, ज़ेड कोई भी कांग्रेसी अब भाजपा की मोदी-शाह कंपनी का विकल्प नहीं बन सकते। न मुलायम सिंह-अखिलेश यादव का परिवार, न मायावती, न लालू परिवार, न नीतीश कुमार और न ही ममता बनर्जी देश को नेतृत्त्व देने में सक्षम हैं। शरद पवार, ऊधव ठाकरे आदि की तो बात ही न करिए। तब क्या मोदी-शाह कंपनी अजर-अमर है? अथवा अब हिंदुस्तान में उत्तर से दक्षिण तक तथा पूरब से पश्चिम तक आरएसएस ही राज करेगा? इसका जवाब मुझसे पूछा जाए, तो मैं कहूँगा- “हाँ!” फिलहाल कोई विकल्प नहीं है। लेकिन राजनीति में कभी ऐसा होता नहीं, इसलिए ऐसा होगा भी नहीं। 
अब सुनिए जवाब। कट्टरपंथ का जवाब उदारपंथ कभी नहीं होता। देवव्रत के क्रूर इरादों को सिद्धार्थ पराजित नहीं कर सके थे, बल्कि महल छोड़कर भागना पड़ा था। कट्टरपंथ को कट्टरपंथ ही हराता है। अब कांग्रेसी चाहे जितना शीर्षासन कर लें, वे अपने दल में वह दृढ़ता और कट्टरता नहीं ला सकते, जो आरएसएस के संगठन में है। क्योंकि कांग्रेसी स्वभाव से ही "पप्पू" होते हैं। चाहे जित्ती हवा भरो "पप्पू" हनुमान नहीं बन सकता। कट्टरता के गुणात्मक पहलुओं पर विचार करिए। यह कोई दुर्गुण नहीं बल्कि समाज और विचार की दृढ़ता का प्रतीक है। यह दृढ़ता कट्टर दक्षिणपंथ वाले संगठन आरएसएस में है, तो उतनी ही माकपा में भी। जी हाँ, सिर्फ माकपा में। यह गुण न तो भाकपा में है, न माले में। भाकपा तो कांग्रेस की तरह ही निर्गुण बन गई है। और माले इन्दिरा राज में इतनी मार खाये, कि उनका कट्टरता वाला गुण गायब हो गया। लेकिन बंगाल में 34 वर्ष के अनवरत राज में माकपा के अंदर कट्टरता का भाव यथावत है। 
अब लोग कहेंगे, कि माकपा बची कहाँ है? बात सच है, बंगाल भी गया और त्रिपुरा भी। केरल में भी गिने-चुने दिन बचे हैं। लेकिन यह सदैव याद रखना चाहिए, कि सत्ता प्रतिष्ठान किसी विचारधारा को पालते-पोषते तो हैं, लेकिन मजबूती उसे सत्ता से दूरी के चलते ही मिलती है। आज सोशल मीडिया पर जिस तरह माकपाई कट्टरता हावी है, वह कल रियल में भी आएगी। और वही मोदी-शाह का विकल्प बनेगी।