प्राचीनता और संस्कृति का रुप था अपनी जगह पर लगने वाला कार्तिक मेला


विकास बड़ा निर्मम एवं क्रूर होता है।  वह ना परम्परा समझता न भावना और न ही इतिहास,वह केवल वर्तमान की चकाचैंध देखता है, यह अलग बात है कि भविष्य कबीर की वाणी में चेतता रहता है। माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोए, एकदिन ऐसा आयेगा मैं रौंदोंगीं  तोये! जी हँा हम गोमती नदी के दहिने किनारे पर डालीगंज पुल से सिटी स्टेशन जाने वाली  सड़क के दोनों ओर लगने वाले कतकी मेला या कहें कार्तिक पूर्णिमा अथवा गंगा स्नान का मेले की बात कर रहे हैं जिसे गतिशील समाज ने विकास में बाधक मानकर उसकी स्थान परिवर्तन  कर दिया गया है।                                    लगातार पांच वर्षों से तमाम प्रयासों के बाद भी मनकामेष्वर घाट एवं झूले लाल घाट के बीच अटका है। वैसे पके पकाये प्रतिष्ठित मेले की मठाधिशी करने इच्छा कुड़िया घाट पर  भी की गई। स्थान परिवर्तन के बाद  यह मेला  लगता है षापित हो गया है।                                                                                                            मेला में ना पुराना वैभव दिखता है नाही दर्शक और खरीददार दूरदूर से आने वाले दुकानदार जो मनमुताबिक बिक्री ना होने के कारण हर बार कहते हैं अगली बार नहीं आयेगे। संभवता  यही कारण है जो मेला डेढ़ माह चलता था। वह मेला हफतेभर में सिमटने लगता है।प्रतिष्ठित मेले में दुकानदार  मेरठ,फिरोजाबाद,अलीगढ़,बनारस आदि स्थानों से आते  हैं। जोकि देवा मेले के समाप्ति  पर आ जाते हैं और नौचंदी मेरठ  के मेला आने तक रहते हैं। मेले मे चीनी मिट्टी के बर्तन क्राॅकरी एवं काली मिट्टी के बर्तन मेला को प्रतिष्ठा दिलाते हैं। मेले की एतिहासिकता के बारे में इतिहासविद् योगेश प्रवीण बताते है यह पांच सौ वर्ष पंुराने सूरज कुण्ड मेला का ही रूप है। सूरज कुण्ड मंदिर एवं तालाब आज भी डालीगंज पुल के नजदीक िस्थित है।