#कानून #न्यायपालिका
कानून के जानकारों ने कहा - प्रशांत भूषण के अवमानना फैसले में गंभीर कानूनी खामियां हैं.
प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना मामले में जस्टिस अरुण मिश्र की बेंच ने जो फैसला दिया है, उसकी समीक्षा और उस पर चर्चा, क़ानून के जानकारों द्वारा की जा रही है। अगर कोई और अवमानना मामला होता तो न शायद इतनी चर्चा होती और न ही मीडिया या सोशल मीडिया कवरेज मिलता । पर अवमानना करने वाला सुप्रीम कोर्ट का एक वरिष्ठ एडवोकेट है और अवमानना के केंद्र में सीजेआई खुद हैं तो ऐसे मामलों में चर्चा का होना स्वाभाविक है।
" प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय गम्भीर खामियो से भरा पड़ा है। " यह कहना है सुप्रीम कोर्ट के ही एक सीनियर एडवोकेट, अरविंद दातार का। अरविंद दातार ने लीगल वेबसाइट, बार एंड बेंच में एक लेख लिख कर उक्त फैसले में व्याप्त कानूनी खामियो का विश्लेषण किया है। मैं इस लेख में अरविंद दातार, सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े, जस्टिस एपी शाह सहित कानून के जानकार लोगों की प्रतिक्रिया और समीक्षा के आधार पर एक अकादमिक और कानूनी दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहा हूँ।
21 जुलाई 2020 को सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट महक माहेश्वरी ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। उक्त याचिका में उन्होंने अदालत से अनुरोध किया कि, " वे सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट, प्रशांत भूषण के विरुद्ध, उनके 29 जून के ट्वीट के सम्बंध में, न्यायालय की अवमानना की कार्यवाही शुरु करे।"
यह याचिका ट्वीट के एक महीने बाद दायर की गयी। चूंकि इस याचिका में अटॉर्नी जनरल की सहमति नहीं ली गयी थी तो सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री ने अपनी प्रशासनिक शाखा को यह विचार करने के लिये भेजा कि, क्या इसे सुनवाई के लिये सूचीबद्ध ( लिस्ट) किया जाय या नहीं। रजिस्ट्री का कदम एक हैरानी भरा और परंपरा से हट कर था। रजिस्ट्री, हर याचिका को पहले चेक करती है और यह देखती है कि कोई कानूनी खामी तो नहीं है। कानूनी खामी वाली याचिकाओं को रजिस्ट्री की शब्दावली में डिफेक्टिव याचिका कहा जाता है। डिफेक्टिव याचिका का डिफेक्ट दूर करने के बाद ही उसे सुनवाई के लिये अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। पर इस याचिका में ऐसा नहीं हुआ है और इस याचिका में डिफेक्ट था, जिसे हम आगे देखेंगे। रजिस्ट्री का यह हैरानी भरा कदम, इसलिए भी था, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट, रूल्स टू रेगुलेट प्रोसिडिंग फ़ॉर कंटेम्प्ट ऑफ द सुप्रीम कोर्ट, 1975, के नियम 3 के अंतर्गत केवल उन्ही याचिकाओं को सुनवाई के लिए स्वीकार कर सकती है, जिस पर अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की सहमति हो। जबकि महक माहेश्वरी की इस याचिका में ऐसी कोई सहमति थी ही नहीं।
अब नियम क्या कहता है, यह आप यहां पढ़ सकते हैं,
" नियम ( रूल ) 3, अवमानना के मामले में, केवल उन मामलो को छोड़ कर, जिनका संदर्भ रूल 2 में दिया गया है, न्यायालय यह कार्यवाही ( एक्शन ) कर सकती है,
(a) स्वतः संज्ञान, सुओ मोटो, या
(b) अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल द्वारा दी गयी कोई याचिका, या
(c) ऐसी कोई याचिका, जो किसी भी व्यक्ति द्वारा, दायर की गयी हो, और अगर वह आपराधिक अवमानना है तो, अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल की सहमति के बाद ही उसकी सुनवाई का निर्णय लिया जाएगा।
इस प्रकार, नियम 3(c) के अंतर्गत,
" यदि अटॉर्नी जनरल की सहमति नहीं है तो, उक्त सहमति के अभाव में यह याचिका ही पोषणीय ( मेंटनेबल ) नहीं है। महक माहेश्वरी की यह याचिका, अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल की सहमति के लिखित अभाव के कारण खारिज कर दी जानी चाहिए थी। ऐसा कोई प्राविधान ही नहीं है कि रजिस्ट्री यह सवाल खड़ा करे कि इसे सुनवाई के लिये सूचीबद्ध किया जाय या नहीं।" याचिका की यह खामी, तब और बढ़ गयी जब न्यायालय ने एक दोषपूर्ण ( डिफेक्टिव ) याचिका को अपने समक्ष प्रस्तुत करने के लिये नियम ( रूल ) 3(a) के अंतर्गत, अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, निर्देशित कर दिया।
इस प्रकार, इस याचिका के प्रारंभ में ही, अटॉर्नी जनरल के समक्ष प्रस्तुत किये जाने की औपचारिकता के नियमों का उल्लंघन हो गया। सबसे पहले बने, अवमानना अधिनियम, 1952 के अंतर्गत, सिविल और आपराधिक अवमानना में कोई भेद नहीं रखा गया है, और न ही, एडवोकेट जनरल या किसी अन्य विधि अधिकारी के सहमति की आवश्यकता का प्राविधान ही है। लेकिन, 1963 में, सान्याल कमेटी की रिपोर्ट आयी। यह कमेटी अवमानना के विभिन्न पक्षों के बारे में अध्ययन करने और कानून को बेहतर तथा युक्तियुक्त बनाने के लिए गठित की गयी थी। उक्त सान्याल कमेटी ने, अपनी रिपोर्ट में, अवमानना के मामलों में, एडवोकेट जनरल या अटॉर्नी जनरल की सहमति प्राप्त करने की संस्तुति की थी, जिसे स्वीकार कर लिया गया है। यह संस्तुति, ब्रिटिश विधि व्यवस्था में, लॉर्ड शाक्रॉस और फिलिमोर कमेटी द्वारा सुझाई गयी संस्तुति कि, अवमानना मामले में, एडवोकेट जनरल या अटॉर्नी जनरल की लिखित संस्तुति होनी चाहिए, पर आधारित है।
अब सान्याल कमेटी की क्या संस्तुति है, इसे देखते हैं। सान्याल कमेटी की रिपोर्ट ( अध्याय X, पैरा 5 ) में अंकित है कि, एडवोकेट जनरल के सहमति की आवश्यकता इस लिये है कि, इससे न केवल अदालत का काम हल्का होगा, बल्कि अवमानना के आरोपी व्यक्ति और जनता को भी, यह अहसास होगा कि उसके मामले में पर्याप्त रूप से विचार करने के बाद ही यह कार्यवाही अदालत द्वारा शुरू की गयी है। यह प्रक्रिया, एक प्रकार से स्क्रीनिंग प्रक्रिया है जिससे यह गम्भीरता पूर्वक जांच लिया जाय कि, अवमानना हुयी भी है नही। सान्याल कमेटी के अनुसार,
" अतः हम यह संस्तुति करते हैं कि, अदालत के बाहर हुयी अवमानना के हर मामले में,कार्यवाही तभी शुरू की जाय जब एडवोकेट जनरल या अटॉर्नी जनरल की सहमति प्राप्त कर ली जाय।"
इस महत्वपूर्ण कानूनी बिंदु पर, सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट, अरविंद दातार का कहना है कि,
" अतः नियम 3(c) के अंतर्गत प्राप्त किसी याचिका पर स्वतः संज्ञान ले लेना उचित नहीं है। इस पर संज्ञान लेना, न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर है।' इस प्रकार अवमानना अधिनियम के अंतर्गत दायर, ऐसी किसी भी याचिका पर केवल अटॉर्नी जनरल का ही अधिकार है कि वह इसकी समीक्षा कर के, अदालत को बताएं कि, इस मामले में, अवमानना हुयी है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट, केवल इस आधार पर कि, उन्हें किसी भी मामले में स्वतः संज्ञान लेने की शक्ति है, अटॉर्नी जनरल या एडवोकेट जनरल के कार्य और शक्तियों का अतिक्रमण नहीं कर सकते हैं। यह हज़ारो बार कहा जा चुका है कि जब कानून की ज़रूरत हो कि, कोई भी कार्य उसी के मुताबिक हो तो, उसे विधिनुकूल ही सम्पन्न होना चाहिए, नहीं तो नहीं होना चाहिए।"
विधि को लागू केवल विधि के अनुसार ही किया जा सकता है, यह न्याय के प्रदान का नैसर्गिक सिद्धांत है। इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसी याचिका पर सुनवाई की और फैसला सुनाया जो आरंभ से ही डिफेक्टिव याचिका थी और अवमानना कानून के अनुरूप नहीं थी।
अरविंद दातार अपने लेख में अवमानना कानून के हवाले से कहते हैं,
" कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट 1971 की धारा 15, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को, अवमानना के मामले में, या तो स्वतः संज्ञान लेने या अटॉर्नी जनरल अथवा एडवोकेट जनरल [देखिये, धारा 15 (1)(a)] द्वारा प्रस्तुत किसी प्रस्ताव ( मोशन ) पर, या किसी भी व्यक्ति को जिसके पास, अटॉर्नी जनरल या एडवोकेट जनरल द्वारा प्रदत्त सहमति हो [ देखिये, धारा 15(1)(b) ] अवमानना की कार्यवाही करने की शक्ति देती है। बाद की दो श्रेणियां, किसी प्रस्ताव ( मोशन ) पर शुरू की जाने वाली कार्यवाहियां कही जाती हैं। इसमे धारा 17(2) में, आरोपी अवमानना करने वाले को कोई भी नोटिस जारी करने, जो उसने, अवमानना योग्य कहा है को हलफनामे के साथ, मय अटॉर्नी जनरल या एडवोकेट जनरल के प्रस्ताव के साथ, न्यायालय में दाखिल करना आवश्यक है। यह अधिनियम, न्यायालय को यह अनुमति नहीं देता कि, वह धारा 15(1)(b) के अंतर्गत दायर किसी याचिका को, स्वतः संज्ञान में बदल दे।"
यानी, अदालत महक माहेश्वरी की याचिका को स्वतः संज्ञान में नहीं बदल सकती। जब किसी की याचिका पर सुनवाई हो रही है तो फिर संज्ञान तो लिया जा चुका है, अतः स्वतः संज्ञान का कोई अर्थ ही नही रहा। स्वतः संज्ञान तो तब होता जब यह ट्वीट पहली बार सार्वजनिक होते ही अदालत द्वारा लिया जाता। लेकिन यह याचिका महल माहेश्वरी एडवोकेट द्वारा दायर की गई और वह भी अधूरी, तो उस याचिका की आड़ में स्वतः संज्ञान लेना नियमविरुद्ध ही हुआ।
प्रशांत भूषण ने 27 जून 2020 को दो ट्वीट किए थे। 27 जून के दूसरे ट्वीट में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर टिप्पणी की है, जो बहुत अधिक प्रसारित हो चुकी है। यह ट्वीट, 22 जुलाई 2020 के एक अंग्रेजी अखबार में , अचानक पुनः प्रकाशित हो गयी, जिस पर महक माहेश्वरी की याचिका आधारित है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी ट्वीट पर स्वतः संज्ञान ले लिया, जबकि इस संबंध में महक माहेश्वरी की याचिका को नियम 3(a) के अंतर्गत लिया जाना चाहिए था। लगभग एक माह पुराने ट्वीट का पुनः अचानक अखबार में छपना, एक संयोग है या प्रयोग, पता नही।
कानून के विद्वानों के अनुसार, इस मुकदमे में दूसरी सबसे बडी और गंभीर खामी यह है कि, अवमानना करने वाले ने अपने जवाब में जिन विन्दुओ को, अपने जवाबी हलफनामे में उठाया है, उस पर अदालत ने सुनवाई के दौरान कोई विचार नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कुल 108 पृष्ठों का है जिंसमे 93 पृष्ठों में, केवल अवमानना से जुड़े उन फैसलों के उद्धरण हैं, जो समय समय पर, भारतीय और इंग्लैंड के न्यायालयों ने, अवमानना के मामलों में दिए हैं। अरविंद दातार अब फैसले में दिए निष्कर्षो पर अपनी टिप्पणी करते हैं। उनके अनुसार,
" पृष्ठ संख्या 93, के पैरा 60 में सुप्रीम कोर्ट ने, ऊपर ( 93 पृष्ठों में दिये गए भारतीय, और इंग्लैंड के अवमानना संबंधी ) दिए गए फैसलों के आलोक में जो निर्देशित सिद्धांत हैं, के अनुसार विचार किया है। पैरा 2 में सुप्रीम कोर्ट ने यह उल्लेख किया है कि प्रशांत भूषण ने अपने विस्तृत हलफनामे, जो 134 पृष्ठों और 463 पृष्ठों के संलग्नकों का है,में विस्तार से अपने, दोनो ट्वीट्स के संबंध में, बचाव को स्पष्ट किया है। इस हलफनामे में, प्रशांत भूषण ने अपना बचाव और स्पष्टीकरण विस्तार से दिया है। सुप्रीम कोर्ट का यह अधिकार है कि, या तो वह उस बचाव को स्वीकार करे या खारिज कर दे। लेकिन यह आवश्यक है कि अदालत, उस पर विचार करे और स्वीकार तथा खारिज करने का युक्तियुक्त आधार स्पष्ट करे। इसके विपरीत, पीएन डूडा बनाम शिव शंकर ( एआईआर 1988 एससी 1208 ) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आपत्तिजनक बयानों पर गंभीरता से विचार किया था और यह पाया कि कोई अवमानना नहीं हुयी है। "
अरविंद दातार के इस उद्धरण से लगता है कि, सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण के जवाबी हलफनामे पर कोई विचार ही नहीं किया और अगर किया तो, उसपर कोई टिप्पणी ही नहीं की।
अब अगर पहले ट्वीट के बारे में जिंसमे, लॉक डाउन में सुप्रीम कोर्ट के बंद होने की बात का उल्लेख है, की बात करें तो, उसके बारे में अदालत ने केवल यही कहा है कि, अदालत, इस आलोचना को उचित नही मानती है और फिर फैसले में यह उल्लेख किया गया है कि कैसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा अदालत अपना काम कर रही थी। लेकिन प्रशांत भूषण के जवाबी हलफनामे पर कोई टिप्पणी नहीं की गयी है।
प्रशांत भूषण ने अपने दूसरे ट्वीट, जिंसमे उन्होंने पिछले 6 सालों में अघोषित आपातकाल और सुप्रीम कोर्ट की गिरती साख और विशेषकर अब तक के अंतिम चार सीजेआई के बारे में टिप्पणी की है, पर, प्रशांत भूषण ने अपने हलफनामे के पैरा 39 से 174, जो पृष्ठ 37 से 134 तक विस्तारित है में विस्तार से अपने बचाव में तथ्य और तर्क दिए हैं। कानूनी जानकारो का कहना है कि प्रशांत भूषण के हलफनामे के इस अंश पर भी विचार किया जाना चाहिए था, जो अदालत ने नहीं किया है। बचाव के सभी विन्दुओ पर विचार करने के बाद ही आपराधिक अवमानना का मुकदमा चलाया जाना चाहिए था। अवमानना अधिनियम की धारा 13 में यह अंकित है कि, जो बचाव में कहा जा रहा है वह कितना सच है और जो बात अवमानना में कहना बताया जा रहा है वह, क्या वास्तव में न्याय में बाधा पहुंचाने के उद्देश्य से ही कहा गया है या नही, इसे देखा जाना चाहिए था। दुर्भाग्य से अदालत ने, जो ट्वीट में कहा गया है, उस आलोचना को जस का तस, बिना जवाबी हलफनामे में दिए गए बचाव के विन्दुओ पर गहनता से विचार किये, अदालत की अवमानना मान लिया गया है, और उसी ट्वीट पर यह कह दिया गया है कि, इससे, भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद हिल गयी और इसे सख्ती से निपटना होगा। यह हास्यास्पद लगता है कि दो ट्वीट से लोकतंत्र की बुनियाद हिल जाती है और न्यायपालिका आधार विचलित हो जाता है।
सुप्रीम कोर्ट एक अपीलीय न्यायालय है और वह इस संदर्भ में सर्वोच्च है। उसके फैसले अंतिम होते हैं। लेकिन, जब वह अवमानना के मुकदमो में सुनवाई करने के लिये बैठता है तो, उसकी स्थिति एक ट्रायल कोर्ट की तरह हो जाती है। अब यही अदालत एक ट्रायल कोर्ट है और यही अपीलीय कोर्ट और उसमे भी सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय। धारा 19(1) नागरिक को अपील करने का एक संवैधानिक अधिकार देती है, अगर कोई व्यक्ति, हाईकोर्ट में दायर अवमानना के मामले में दंडित हो जाता है तो। जबकि सुप्रीम कोर्ट में चल रहे अवमानना के मुकदमे में आरोपी को अपील करने का भी अधिकार नहीं मिल सकता, क्योंकि, सुप्रीम कोर्ट के ऊपर कोई अन्य बड़ी कोर्ट है भी नहीं। अतः ऐसी परिस्थिति में, सुप्रीम कोर्ट का यह अहम दायित्व है कि वह ट्रायल कोर्ट की तरह किसी मुकदमे की सुनवाई करे तो, सारे तथ्यो, तर्कों और विन्दुओ पर गहनता से विचार विमर्श कर के ही अपना निर्णय दे, क्योंकि वह अंतिम है।
इस संदर्भ में पंजाब के एक मुकदमे का उल्लेख आवश्यक है। पंजाब का एक प्रसिद्ध मुकदमा है मुख्तियार सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1995 का। इस मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि ट्रायल कोर्ट ने, उसके सामने जो साक्ष्य रखे गए थे, उन पर युक्तियुक्त विचार नहीं किया है। इस पर ट्रायल कोर्ट के फैसले पर प्रतिकूल टिप्पणी करते हुये, सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है, वह पढिये,
" न्याय की सबसे पहली ज़रूरत है कि, ट्रायल कोर्ट, से यह अपेक्षा है कि, वह, उन सभी साक्ष्यों, गवाहियों और दस्तावेजों का संज्ञान लेकर विचारण करे जो उसके सामने प्रस्तुत किये जाते हैं और वकीलों द्वारा मुकदमे के ट्रायल के दौरान जो, कुछ भी कहा जाय उस पर भी विचार करें। इस मामले में, ट्रायल कोर्ट ने ऐसा नहीं किया है। अतः ट्रायल कोर्ट अपने दायित्वों के निर्वहन में असफल रहा है। यह फैसला इतना अपूर्ण है कि, हम यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि, आखिर अदालत कैसे इस निष्कर्ष पर पहुची है । ट्रायल कोर्ट के फ़ैसले को देख कर लगता है कि, कानून की निगाह में यह कोई फैसला है ही नहीं।"
प्रशांत भूषण के दूसरे ट्वीट ने बेहद अहम सवाल उठाये हैं। उस ट्वीट में जो कहा गया है उससे किसी को भी असहमत होने का अधिकार है, पर अपने बचाव में जो उन्होंने अपने हलफनामे में कहा है वह बेहद महत्वपूर्ण और न्यायपालिका के बारे में सोचने के लिये बाध्य करता है। प्रशांत भूषण ने अपने हलफनामे में, 12 जनवरी 2018 को की गयी, चार जजो की ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेंस में उक्त जजो द्वारा कहे गए उद्धरणों को उद्धृत किया है, जिस पर यह फैसला कोई भी टिप्पणी नहीं करता है। बल्कि अदालत ने प्रशांत भूषण के हलफनामे के इस अंश को लगता है नज़रअंदाज़ ही कर दिया है। उनके हलफनामे में, नवम्बर दिसंबर 2018 में , जस्टिस कुरियन जोसेफ द्वारा कहा गया यह अंश, " कुछ मामलों को, सुनवाई हेतु, चुनिंदा जजो को ही आवंटित करने के लिये कोई बाहरी दबाव रहता है " बेहद आपत्तिजनक है और यह वाक्य, सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर एक गम्भीर टिप्पणी है। पर इसे तो अवमानना नहीं माना गया। यहीं तक जस्टिस कुरियन नही रुके बल्कि यह भी कहा कि,
" हमने महसूस किया कि कोई बाहर से सीजेआई को नियंत्रित कर रहा है। "
वह बाहर वाला कौन है जो देश के संविधान की रक्षा करने के लिये शपथबद्ध न्याय के शीर्ष को नियंत्रित कर रहा है ? अपने अन्तरावलोकन का यह कार्य सुप्रीम कोर्ट का ही है।
फैसले की समीक्षा से यह स्पष्ट होता है कि प्रशांत भूषण के जवाबी तर्कों पर अदालत ने विचार नहीं किया। अवमानना कानून निजी खुन्नस या ज़िद पूरी करने के लिये नहीं बनाया गया है बल्कि यह न्याय और न्यायलय की गरिमा को बनाये रखने के लिये बनाया गया है, जो जनता की तमाम झंझावातों के बीच एक अंतिम आश्रय के रूप में आकाशदीप की तरह प्रज्वलित है।
अब एक उद्धरण पढ़ लीजिए, जो मैं अरविंद दातार के लेख से लेकर उद्धृत कर रहा हूँ।
" यह अवधारणा कि, न्यायधीशों का बचाव कर के, न्यायपालिका के प्रति सम्मान अर्जित किया जा सकता है, अमेरिकी पब्लिक ओपिनियन के प्रति गलत धारणा बनाना है। अमेरिकी जनता का यह एक महत्वपूर्ण विशेषाधिकार है कि वह अपनी बात, सभी सार्वजनिक संस्थानों के संबंध में खुल कर कहती है। यह बात अलग है कि कभी कभी वह अभिव्यक्ति अच्छे शब्दो मे नहीं होती है। लेकिन, जजों की गरिमा के लिये एक थोपा गया मौन, चाहे वह कितना भी अल्प हो, आक्रोश, सन्देह और अवमानना को ही बढ़ाएगा, न कि न्यायपालिका के सम्मान को।
( पर ह्यूगो ब्लैक, जज, ब्रिजेस बनाम कैलिफोर्निया ( 1941) 314 US 252 पृ. 271 -72.
( विजय शंकर सिंह )
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