अरविन्द शेष
बाकी समूची इंडियन मीडिया सहित बीबीसी पर भी इस खबर को अहम खबर के रूप में परोसा हुआ देख कर एक आम आदमी होने के नाते आपको यह सामान्य लगेगा। लेकिन यह सिर्फ एक नमूना है यह समझने के लिए कि राजनीति अब मीडिया का खेल है, क्योंकि जनता के ज्यादातर हिस्से के गर्दन के ऊपर से सवाल या शक करने की थैली निकाल ली गई है।
मीडिया का मतलब अब महज कोई खबर लेना या देना नहीं है, किसी रचे गए नाटक को जबरन खबर के तौर पर हमले और आतंक की शक्ल में 'अपने उपभोक्ताओं' के दिमाग में ठूंसा जाता है। दिमागों में ठूंसा गया नाटक सोशल नैरेटिव बनता है और किसी चर्मरोग की तरह पसरते हुए ओपिनियन मेकिंग में अहम भूमिका निभाने लगता है।
इस लिहाज से देखें तो पिछले कुछ दिनों से मीडिया के पर्दे पर देश के सिर्फ दो या तीन नेताओं की बात हो रही है- नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया।
थोड़ा दिमाग पर जोर दीजिए कि इनको 'अपने उपभोक्ताओं' के दिमाग में ठूंसने का इस ताजा दौर के पीछे क्या हो सकता है। बिहार में बदलाव की घटना के बीच व्यक्ति की छवि के तौर पर तेजस्वी और तेजस्वी के साथ वाले नीतीश की खबर जब तूफान की शक्ल अख्तियार करने लगी, तब अंदाजा लगा लिया गया कि यह घटना आम जनता के दिमाग में मत-निर्माण के तौर पर कितनी अहम साबित हो सकती है।
इसी के बाद संदर्भ या बिना संदर्भ के पर्दे पर मोदी-केजरीवाल-सिसोदिया (मोदड़ीवालोदिया) का छा जाना उसी राजनीति का खेल है कि बाकी को पर्दे पर आने ही नहीं दो कि आम लोगों को इनके बारे में अच्छा या खराब सोचने का मौका मिले।
कोई भी परिदृश्य में रहेगा, वही किसी शक्ल में टिकेगा। जो परिदृश्य में नहीं रहेगा, वह आखिरकार विलीन हो जाएगा। यह सदियों से साबित होता आया है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )