पत्रकारिता और राजनीतिक पार्टियां

सत्येंद्र पी एस-

2014 के इलेक्शन के पहले नरेंद्र मोदी बुक्का फाड़ते थे कि मीडिया उनको भाव नहीं देता, केवल सरकार की बात दिखाता है। बसपा और काशीराम की पूरी रणनीति ही मीडिया के खिलाफ रहकर मीडिया में बने रहने का था। वहीं मुलायम सिंह यादव और सपा के लोग सम्मान, प्लाट वगैरा देकर मीडिया कर्मियों को अपने पक्ष में करने की कवायद करते थे।

अब कांग्रेस के लोग बुक्का फाड़ रहे हैं कि गोदी मीडिया सरकार के पक्ष में हो गई है। न उसे विपक्ष से मतलब है, न जनता के मसले से। वह सरकार का भोंपू बन गई है। विपक्ष में बैठे अन्य दल भी मीडिया का रोना रोते रहते हैं।

किसी भी दल, किसी सरकार को यह मतलब नहीं है कि फ्री मीडिया कैसे बनाएं। इसे दलाली मुक्त कैसे करें? मीडिया कर्मियों को सम्मानजनक वेतन और रिटायरमेंट के बाद उनके जिंदा रहने का इंतजाम कैसे करें? किसने मीडिया को इस हाल में पहुँचाया है कि वह कारपोरेट की गुलाम बन जाए? मीडिया कर्मियों को दयनीय अवस्था में किसने पहुंचाया है? एक छोटा हाथी चलाने वाला व्यक्ति महीने में 40 हजार कमा लेता है। मीडिया में कितने लोग हैं जिनकी सेलरी 40 हजार रुपये महीने से ऊपर है?

तो ज्यादा रोइये गाइये नहीं। ऐसे ही चलाना चाहते हैं आप लोग। कुछ नहीं हो सकता। आप बदलाव चाहते ही नहीं हैं। नगटई करना आपका काम है, सत्ता में रहेंगे तो कुछ और विपक्ष में रहेंगे तो कुछ और बकेंगे।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार ने उनकी फेसबुक वॉल से )