नई शिक्षा नीति की चर्चा कोई इधर की बात नहीं है। मोदी सरकार कई वर्षों से इसकी तैयारी कर रही थी।
हालांकि, अब जब यह नई नीति लागू की जा रही है तब लोगों को लग रहा है कि इस राह चलने पर तो शिक्षा काफी महंगी हो जाएगी।
महंगी हो नहीं जाएगी, महंगी हो चुकी है।
इससे भी बदतर यह कि महंगी होती ही जाएगी, क्योंकि सरकार ही ऐसा चाहती है।
जब बिहार के अखबारों में खबरें छपने लगी कि स्नातक कक्षाओं में शिक्षा की नई प्रणाली शुरू होने पर यह एकबारगी पांच से सात गुना महंगी हो जाएगी तो लोगों की चिंता बढ़ने लगी।
पर, अब मामला आम लोगों की इन चिंताओं से आगे जा चुका है। जो होना है वह हो रहा है और यह संभव नहीं कि धारा की दिशा को बदला जा सके।
इन नई नीतियों के आलोक में शिक्षा के भावी परिदृश्य की कल्पना करें तो पहली बात तो यह कि आने वाले समय में उच्च शिक्षा इतनी महंगी हो जाने वाली है कि कम आय वर्ग की बड़ी आबादी के बहुत सारे बच्चे इस ओर झांकेंगे ही नहीं।
उनके लिए सरकार ने कौशल विकास की कई योजनाएं बनाई हैं जिनके अंतर्गत उन्हें विभिन्न छोटे मोटे रोजगारों में लगाया जाएगा।
हालांकि, कौशल विकास की ये योजनाएं अधिकतर मामलों में क्रियान्वयन के स्तर पर अब तक सफेद हाथी ही साबित हुई हैं।
यानी, कम आय वर्ग के ये नौजवान इस तरह विकल्पहीन बना दिए जाएंगे कि वे कंपनियों की अमानवीय शर्तों पर श्रमिक बनने के अलावा कुछ और नहीं कर पाएंगे।
दरअसल, नरेंद्र मोदी आधुनिक भारत के इतिहास में नेहरू से बड़ी लकीर खींचना चाहते हैं और उनके समर्थकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि भविष्य में जब भारत का इतिहास लिखा जाए तो इसके अध्यायों का विभाजन "भारत मोदी के पहले और भारत मोदी के बाद" के नामों से हो।
मोदी ने नई टैक्स प्रणाली की शुरुआत की और इसे नए भारत की मांग बताया। वे नई शिक्षा प्रणाली ला रहे हैं और इसे भी बदलते भारत की मांग बता रहे हैं।
बात होनी चाहिए कि यह किस बदलते भारत की मांग है कि उच्च शिक्षा अचानक से पांच सात गुने महंगी हो जाए।
डिबेट होना चाहिए कि सरकारी कालेजों को स्वायत्त संस्थानों में बदल कर उन्हें मनमानी फीस निर्धारण की छूट देना किस तरह बदलते भारत की मांग है।
दौर बदलते हैं तो उनके अनुरूप सिलेबस और शिक्षण प्रणाली में बदलावों की बात तो समझ में आती है, लेकिन फीस स्ट्रक्चर में ऐसे बदलावों की बात का क्या औचित्य है जिसमें बड़ी आबादी के लिए उच्च शिक्षा दुर्लभ हो जाए।
उदाहरण बताते हैं कि जिन सरकारी संस्थानों को नई नीतियों के तहत स्वायत्त बनाया गया है उनकी फीस कई तरह के कोर्सेज में अकल्पनीय तरीके से बढ़ी है।
त्रासदी यह कि इन स्वायत्त संस्थानों में शिक्षकों के अधिकारों और उनकी गरिमा के साथ भी समझौता किया जा रहा है।
अभी पिछले वर्ष पटना के एक बहुचर्चित और प्रतिष्ठित कॉलेज, जिसे स्वायत्त का दर्जा दे दिया गया, ने कुछ विषयों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी किया तो उसमें योग्यता तो वही रखी गई जो यूजीसी के मानदंडों के अनुरूप हैं, लेकिन उनका वेतन सीधे आधा कर दिया गया।
स्वायत्तता के नाम पर शिक्षा के कारपोरेटीकरण का यही निष्कर्ष निकलना भी था, जो निकल रहा है। यानी, जिन कोर्सेज में बच्चों की भीड़ जुटती है उसकी फीस पंद्रह गुना, बीस गुना तक बढ़ा देना और स्थायी शिक्षकों की जगह उनकी अंशकालिक नियुक्ति कर उन्हें वाजिब से आधा से भी कम वेतन देना।
बनिया पहला ध्यान मुनाफा पर ही देगा और अगर शिक्षा को बनियागिरी के हवाले कर दिया जाए तो यही सब होगा जो होने लगा है।
तो, बदलते भारत की यह सबसे प्रमुख प्रवृत्ति है कि अधिकतम क्षेत्र कारपोरेट के हवाले कर दिए जाएं और वे मुनाफा के तर्क से प्रेरित हो कर इन क्षेत्रों का संचालन करें...और...खूब सारा माल़ कूटें।
बदलता भारत खूब सारा माल़ कूटने की हवस पाले कारपोरेट प्रभुओं की अंतहीन लिप्साओं का खुला मैदान बन रहा है और हमें बताया जा रहा है कि भारत बदल रहा है, बढ़ रहा है, दुनिया की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हो रहा है और सबसे गर्व की बात यह कि भारत "फिर से" विश्व गुरु बनने की ओर तेजी से अग्रसर है।
अभी कल खबरों में नजर आया कि अडानी की कंपनी रेलगाड़ियों के टिकटों की ऑन लाइन बुकिंग करने का अधिकार हासिल करने वाली है।
सोचिए जरा, इस सुरक्षित क्षेत्र में अदानी महाशय बिना रिस्क लिए कितना मुनाफा कूटने वाले हैं। ऑनलाइन टिकट बिक्री की दरें बढ़ जाएंगी इसमें तो कोई संदेह ही नहीं।
भारत के शैक्षिक परिदृश्य में आज भी प्राइवेट विश्वविद्यालयों का योगदान कतई उल्लेखनीय नहीं है लेकिन वे कितना मुनाफा कमा रहे हैं और छात्रों-शिक्षकों का कितना शोषण कर रहे हैं इस पर अधिक चर्चा नहीं होती।
कुल मिला कर बदलते भारत का यही फलसफा है कि सब कुछ मुनाफा की संस्कृति के हवाले।
इस दारुण परिदृश्य में पूंजी और श्रम का द्वंद्व एक नए धरातल पर पहुंच गया है लेकिन इस ओर किसी विशेष अध्ययन को प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा।
भारत में सर्विस सेक्टर का विस्तार तेजी से हो रहा है और शिक्षा को सर्विस बना कर शिक्षार्थियों को उपभोक्ता बना दिया जा रहा है। ऐसा उपभोक्ता, जिसके अधिकार बेहद सीमित हों, जिसके विकल्प बेहद सीमित हों और जो शोषित होने के लिए , लूट लिए जाने के लिए ही अभिशप्त हो।
लूट की यह संस्कृति स्कूली शिक्षा में तो हावी हो ही चुकी है, अब विश्वविद्यालय शिक्षा में भी इसी संस्कृति का वर्चस्व होगा।
ऐसा बदलता भारत डराता है।