मिडिल क्लास की मजबूरी
हेमंत कुमार झा 

कश्मीर में भारतीय सेना के कर्नल और मेजर और पुलिस के एक डीएसपी की शहादत पर भारत का मिडिल क्लास क्या सोच रहा है? 

        वह कुछ नहीं सोच रहा है।

  वह भावुक हो रहा है उन अफसरों की जवान शहादत पर, फिर गर्व से भर जा रहा है।

   एंकर उन अफसरों की जांबाजी के किस्से और राष्ट्र के प्रति बलिदान की महिमा बता रहे हैं, अपने गद्देदार सोफे या मुलायम बिस्तरों पर अधलेटे  मिडिल क्लास की रगों में देशप्रेम ज्वार मारने लगता है। उधर एंकरानी उन शहीदों के मासूम बच्चों और परिवारों के बारे में रिपोर्ट देती भावुकता की धारा बहा दे रही है।

    बलिदानों पर भावुक होकर और फिर गर्व कर लेने के बाद सब अपने सुख-दुःख में बिजी हो जा रहे हैं और कल के अखबारों में कश्मीर या फिर उन शहादतों के बारे में छपे किसी नए अपडेट पर ध्यान तक देने की उन्हें फुरसत नहीं होगी।

  दरअसल, वे इस पर सोचते ही नहीं कि आखिर ऐसा क्या मामला है कि उनके जन्म के भी पहले से चला आ रहा, हजारों जवानों की कुर्बानी ले चुका यह विवाद सुलझने का नाम ही नहीं ले रहा।

      वे इस पर नहीं सोचते, जरा भी नहीं सोचते। 

   हां, "कश्मीर मांगोगे तो चीर देगें" जैसे डायलॉग उन्हें जोश से भर देते हैं। 

  उनके लिए कश्मीर एक पर्व है...बलिदानों पर गर्व का, भावुकता का, रगों में देशप्रेम की लहर का।

     देश में उनकी आबादी चालीस-पैंतालीस करोड़ के करीब है, लेकिन एक सौ पैंतालीस करोड़ लोगों के इस देश की राजनीति में उनका निर्णायक वर्चस्व है।

     कश्मीर पर निर्णय कश्मीर के लिए नहीं, बाकी देश के मानस को देख कर लिए जाते रहे हैं। भाजपा सरकार ने इस मानस को अपनी वैचारिकी के अनुकूल मोड़ने में बहुत हद तक सफलता हासिल की और फिर ऐतिहासिक निर्णय लिए गए।

   लेकिन, शांति हासिल नहीं हुई।

     अशांत कश्मीर है, देश का मिडिल क्लास अशांत नहीं। वह अपने काम धंधे में लगा है। कश्मीर की अशांति का वह अभ्यस्त हो गया है। उसके पिता भी कश्मीर विवाद की खबरें पढ़ते-सुनते बूढ़े होकर एक दिन मर गए, बचपन से वह भी इन खबरों से गुजरते बूढ़ा होने को आया, कल उसके बच्चे भी जवान शहादतों पर भावुक होंगे, फिर गर्व करेंगे, फिर अपनी दुकान पर तीन का तेरह करने में लग जाएंगे।

    मध्य वर्ग युद्धों से नफरत करता है, इनसे उसकी सहज कामकाजी जिंदगी में असहजता आती है। लेकिन, जब राष्ट्र-राष्ट्र की रट लगती है, सारा आलम प्रोपेगेंडा के धुंध से भर जाता है तो इनकी रगों में भी उबाल आ जाता है। 

   इन्हीं उबालों की तो जरूरत है।  राजनीति के लिए यह जरूरी है।

   उधर, पाकिस्तान में तो राजनीति की धुरी ही कश्मीर समस्या है। कश्मीर पर जनता के बीच उबाल वहां के राजनीतिज्ञों के लिए जरूरत है जबकि वहां की सेना के लिए यह सबसे बड़ा हथियार है।

     इधर, भारत में भाजपा की बड़ी सफलता रही कि उसने इस राजनीतिक हथियार को नई चमक और धार दे दी।

     धर्म का भी एंगल जो है।

          राष्ट्र और धर्म के घालमेल में जब सेना को भी सान दिया जाए तो बलिदानों पर भावुकता अपने अतिरेक को छूने लगती है, गर्व सीने में बेकाबू धौंकनी बन कर सोचने विचारने की शक्ति का हरण कर लेता है...और तब, कोई संगठन, कोई नेता राष्ट्र, धर्म और सेना के साथ खुद को एकाकार दर्शाता एक नया राजनीतिक परिदृश्य रचता है, देश को नया परिवेश देता है।

    कश्मीर का ताजा सूरते हाल इसी नए राजनीतिक परिदृश्य, नए परिवेश के निर्माण की कोशिशों का एक नया नतीजा है। 

  कश्मीर अशांति के अंतहीन अंधेरों की गिरफ्त में है लेकिन वहां के आम लोगों की जिंदगी की दुश्वारियों को बयान करती किसी रिपोर्ट को पढ़ने या जानने की कोई जिज्ञासा मिडिल क्लास में नहीं।

      भारत का मध्य वर्ग कई संदर्भों में एक महान अध्याय है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की निर्णायक शक्ति, दुनिया का सबसे बड़ा बाजार।

     दुनिया में देश की बढ़ती प्रतिष्ठा का समानुपातिक संबंध भारतीय मध्य वर्ग की बढ़ती समृद्धि से है।

    यही कारण है कि भारतीय राजनीति के केंद्र में नीचे के पचास करोड़ लोग नहीं, ऊपर के पचास करोड़ लोग हैं।

      मध्यवर्ग की इस बढ़ती समृद्धि में विशाल वंचित आबादी के अमानवीय शोषण की बड़ी भूमिका है। 
    
     यही कारण है कि राजसत्ता और बाजार के द्वारा नीचे के पचास करोड़ लोगों के शोषण में मध्यवर्ग की बराबर की भागीदारी है। अपने उदय काल से बीती शताब्दी के अंत तक मध्य वर्ग का निम्न वर्ग से इतना विषम संबंध कभी नहीं रहा जितना अब है। यही बीते ढाई-तीन दशकों की राजनीतिक आर्थिकी का सामाजिक निष्कर्ष है।

     इस सामाजिक निष्कर्ष ने, आर्थिक उदारवाद के सहजात उपभोक्तावाद की तीव्र आंधी ने मध्य वर्ग को अति स्वार्थी होने की हद तक आत्मनिष्ठ बना दिया। उसकी उपभोक्तावादी आत्मनिष्ठ सोच में कश्मीर या मणिपुर जैसी घटनाएं ऐसी संवेदनशीलता नहीं जगा पातीं कि वह राजनीतिक षडयंत्रों को समझने की जहमत मोल ले। 

    वह प्रोपेगेंडा से जन्मे प्रचलित और लोकप्रिय नैरेटिव्स से सहज ही प्रभावित होता है और इन्हीं के अनुसार उसकी राजनीतिक सोच भी ढलती है। यहीं आकर राजनीति का कुचक्र और मध्य वर्ग का मानस एक धरातल पर आ कर मिल जाते हैं और पीछे रह जाते हैं राजनीति के शिकार अशांत क्षेत्रों के लोग, प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर वनाच्छादित इलाकों के आदिवासी, जीने की जद्दोजहद से जूझती हाशिए की आबादी।

       कभी समाज को दिशा देने वाला मिडिल क्लास आज वैचारिक स्तरों पर खुद दिशाहीन है और उन आर्थिक-राजनीतिक षडयंत्रों से घिरा भी, जो उससे अधिक उसके बच्चों की पीढ़ी के लिए घातक साबित होने वाले हैं।

   बावजूद इसके कि भारत की राजनीति पर मिडिल क्लास का वर्चस्व है, इसके पास वह दृष्टि नहीं जो कश्मीर के समाधान पर कुछ सार्थक सोच सके, अस्तित्व के अधिकारों के लिए संघर्ष करते आदिवासी समूहों के साथ कोई सामंजस्य बिठा सके, हाशिए की पचास करोड़ आबादी को मनुष्य होने की गरिमा पाने में सहयोगी हो सके।

     सुबह में जो लोग टीवी पर या मोबाइल पर कश्मीर की शहादतों पर भावुक हो रहे थे, गर्व फील कर रहे थे, दोपहर में वे शाहरुख के 'जवान' के हिट होने की चर्चा कर रहे होंगे और शाम होते होते एशिया कप के फाइनल में भारत की संभावना पर विमर्श में लीन हो गए होंगे।
   यह अलग विमर्श का विषय है कि भारत का मिडिल क्लास मनुष्यता के प्रति इतना निरपेक्ष कैसे होता गया कि वह मनुष्यता विरोधी लगने लगा है।
( लेखक पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)