इटावा आरक्षित सीट पर लगातार नहीं मिल सकी है किसी को जीत


गुलशन कुमार 

वर्ष 2009 में सामान्य से आरक्षित घोषित हुई इटावा लोकसभा सीट पर पहला लोकसभा चुनाव हुआ था। उसके बाद से यह तीसरा चुनाव है। पिछले तीन लोकसभा चुनाव में इटावा लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने हर बार नए चेहरे को जिता कर संसद भेजने का कार्य किया है।
वर्ष 2009 में समाजवादी पार्टी के प्रेमदास कठेरिया,2014 में भाजपा के अशोक दोहरे व 2019 में भाजपा के ही डॉ. रामशंकर कठेरिया को जीत मिली थी। 2024 में इटावा आरक्षित सीट पर चौथी बार चुनाव हो रहा है। इस बार भाजपा के डॉ. रामशंकर कठेरिया को छोड़कर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने इस बार नए चेहरों पर दांव लगाया है। इसमें भी बहुजन समाज पार्टी की प्रत्याशी सारिका सिंह बघेल पूर्व में लोकसभा चुनाव हाथरस से राष्ट्रीय लोकदल पार्टी की सांसद रह चुकी हैं। यानी उन्हें लोकसभा चुनाव लड़ने का न सिर्फ अनुभव है, बल्कि वह जीत भी चुकी हैं।
बात समाजवादी पार्टी की करें तो जितेंद्र दोहरे पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। बात उनके चुनावी अनुभव की करें तो वह अपनी पत्नी को इटावा जनपद के ब्लॉक महेवा का ब्लॉक प्रमुख बनवा चुके हैं। महेवा को एशिया महाद्वीप के पहले ब्लॉक होने का दर्जा प्राप्त है।
इस बार समाजवादी पार्टी इंडिया गठबंधन के तहत चुनाव लड़ रही है। जो कांग्रेस,आम आदमी पार्टी,माकपा के सहयोग से चुनाव मैदान में है। इस वजह से मजबूत स्थिति में कही जा सकती है। गठबंधन के उम्मीदवार को मुस्लिम, यादव वोटों का सहारा तो है ही। साथ ही उन्हें अनुसूचित जाति के वोट भी अच्छी संख्या में मिलने का अनुमान है। इसकी वजह जितेंद्र दोहरे का पूर्व में बहुजन समाज पार्टी का जिलाध्यक्ष होने के अलावा भरथना विधानसभा के विधायक राघवेंद्र गौतम हैं। यह भी बहुजन समाज पार्टी के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। ऐसे में दोनों की अनुसूचित जाति के मतदाताओं पर अच्छी पकड़ मानी जा सकती है। यानी दोनों नेताओं के स्थानीय होने का लाभ समाजवादी पार्टी को मिल सकता है। अनुसूचित जाति के ज्यादातर वोटर बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार को बाहरी मानकर उसके खिलाफ वोट कर सकते हैं, यदि उन्हें वह समझाने में सफल रही तो। समाजवादी पार्टी फिलहाल इसी लगी हुई है और अपनी गोटी फिट करने में लगी हुई है।
जहां तक बात भाजपा उम्मीदवार डॉ. रामशंकर कठेरिया की करें तो वह वर्तमान में सांसद हैं। 2019 के चुनाव में वह विजयी हुए थे। कहने को इटावा उनका गृह जनपद है, लेकिन बावजूद इसके वह मूल निवासी आगरा के हैं और वह इटावा में खुद के लिए वोट नहीं डाल सकते। इस वजह से उन्हें भी यदि बाहरी कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा। यदि वोटिंग के लिहाज से कहा जाए।
भाजपा को सिर्फ अपना दल का समर्थन मिला हुआ है। चुनाव प्रचार में बस एक सप्ताह का समय शेष है। अभी तक भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह चुनावी सभा को जरूर संबोधित कर चुके हैं। लेकिन फिर भी एकतरफा जीत की उम्मीद नहीं की जा रही है। इसकी एक वजह वोटरों का खामोश रहना है। जो कहीं न कहीं पार्टी के नेताओं की नीतियों से खिन्न नजर आ रहे हैं। वैसे भी भाजपा में जिस तरह की गुटबंदी 2019 के चुनाव के बाद से देखी जा रही है वह खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। इससे कार्यकर्ताओं तक मनोबल जिस्र तरह से गिरा हुआ है। वह भी भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है। इसकी मुख्य वजह छोटे स्तर तक का काम न होना है। डबल इंजन सरकार के बावजूद कार्यकर्ताओं के लाइसेंस तक नहीं बन सके। उनका फला माननीयों के गुट का होने की वजह से काम नहीं होने से ऐसे कार्यकर्ता गहरी निराशा में डूबे हुए हैं। ऐसे में उनका कहना है कि वह तो वोट पार्टी को देंगे ही, लेकिन परिवार, पड़ोसी और मोहल्ले में वोट डालने की अपील तो कर रहे हैं। लेकिन उन पर किसी तरह का दवाब बनाने की स्थिति नहीं है। कुल मिला कर जिले का संगठन जिस तरह से कार्य कर रहा है। वह भी सवालों के घेरे में है। उम्मीद है प्रधानमंत्री की जनसभा के बाद हालात में शायद कुछ सुधार हो जाए। अन्यथा पिछले तीन चुनावों का जो रिकार्ड है उसे तोड़ना बहुत ही मुश्किल होगा।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )